एक नगर में रहने वाला सोमिलक नामक जुलाहा एक उच्चकोटि का कलाकार था। वह राजाओं के लिए अच्छे वस्त्र बुनता था, लेकिन फिर भी वह साधारण जुलाहों जितना भी धन नहीं कमा पाता था। अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान होकर एक दिन सोमिलक अपनी पत्नी से बोला, “प्रिये! भगवान की यह कैसी लीला है कि साधारण जुलाहे भी मुझसे अधिक कमा लेते हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद यह स्थान मेरे लिए सही नहीं है इसलिए मैं किसी अन्य स्थान पर जाकर अपना भाग्य आजमाना चाहता हूँ।” अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नैव भोगं समश्नुते। अरण्यं महदासाद्य मूढः सोमिलको यथा॥ अर्थात् धन का उपार्जन करने पर भी कई लोग उसका भोग नहीं कर पाते हैं, देखें किस प्रकार मूर्ख सोमलिक धनोपार्जन करके भी ग़रीब ही रहा। सोमिलक की पत्नी बोली, “आपका ऐसा सोचना उचित नहीं है। भले ही मेरुपर्वत पर चले जाओ, चाहे मरुस्थल में रहने लगो. आप चाहे कहीं भी चले जाओ अगर आप अपने जोड़े हुए धन का इस्तेमाल नहीं करोगे, तो कमाया हुआ धन भी चला जाएगा। इसलिए मैं कहती हूँ कि आप अपना काम-धन्धा यहीं रहकर करते रहो।” जुलाहा बोला, “प्रिये! मैं तुम्हारे इस विचार से सहमत नहीं हूँ। परिश्रम करने से कोई भी व्यक्ति अपने भाग्य को बदल सकता है। इसलिए मैं दूसरे देश अवश्य जाऊँगा।” यह सोचकर सोमिलक दूसरे नगर में जाकर कुशलतापूर्वक श्रम करने लगा और कुछ ही समय में उसने तीन सौ स्वर्णमुद्राएँ कमा ली। फिर वह उन स्वर्णमुद्राओं को लेकर अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में सूर्यास्त हो गया, तो जंगली पशुओं से बचने के लिए वह एक पेड़ की शाखा पर चढ़कर सो गया। आधी रात में उसने भाग्य और पुरुषार्थ नामक दो व्यक्तियों को कहते सुना। भाग्य ने पुरुषार्थ से कहा, “जब तुम्हें पता है कि इस जुलाहे के भाग्य में अधिक धन नहीं लिखा, तब तुमने इसे तीन सौ स्वर्णमुद्राएँ क्यों दीं?” पुरुषार्थ ने उत्तर दिया, “मुझे तो उसके परिश्रम का फल उसे देना ही था, अब आगे की तुम जानो।” यह सुनते ही जुलाहे की नींद खुल गई और उसने अपनी थैली सम्भाली, तो वह ख़ाली थी। यह देखकर वह रोने लगा। ख़ाली हाथ घर जाना उचित ना समझकर, वह पुनः अपने काम पर वापस लौट आया और फिर से परिश्रम करने लगा। एक वर्ष में पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ जुटाकर वह पुनः एक दिन अपने घर को चल दिया। इस बार सूर्यास्त हो जाने पर भी उसने ...